विश्व के सामने भारत की एक और भयावह रिपोर्ट : 100 करोड़ के पास खर्च करने के लिए पैसे ही नहीं हैं

 *विश्व के सामने भारत की एक और भयावह रिपोर्ट : 100 करोड़ के पास खर्च करने के लिए पैसे ही नहीं हैं*


ब्लूम की वार्षिक रिपोर्ट 2025 भारतीयों को ध्यान में रखकर तैयार नहीं की गई है। इस रिपोर्ट को तैयार करने वालों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि जिस रिपोर्ट को वे अपने वेंचर कैपिटल ग्राहकों के लिए तैयार कर रहे हैं, उसकी चर्चा भी देश के भीतर हो सकती है। 


लेकिन बीबीसी ने कल इस रिपोर्ट का नोटिस लिया और कवर किया, इसलिए देश में इस पर चर्चा हो रही है। अपनी 2022 की रिपोर्ट में ब्लूम ने भारत को विश्व में सबसे तेज रफ्तार से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था करार दिया था। लेकिन हालिया रिपोर्ट में साफ़ बताया है कि साइज़ से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है, भारत का बाज़ार असल में बहुत ही छोटा है, और सिकुड़ रहा है।


अपनी 188 पेज की रिपोर्ट को बेहद पेशेवर अंदाज में तैयार करते हुए सजिथ पाई, अनुराग पगारिया, नाचाम्मई सावित्री और ध्रुव त्रेहन ने ग्राफिक्स का जमकर इस्तेमाल किया है, जिससे यह रिपोर्ट बोझिल और आंकड़ों का जाल नहीं लगता। कई जगहों पर भारत और चीन की अर्थव्यवस्था, ग्रोथ, उपभोक्ता बचत, निवेश जैसे पहलुओं को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।


लेकिन ब्लूम की रिपोर्ट में जिन दो ग्राफिक्स से सबसे अधिक आकर्षित किया, उसमें से एक है भारतीय जनसंख्या को इसने तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है। इसमें पहला है संपन्न वर्ग जो कुल आबादी का 10% दर्शाया गया है। दूसरा है मध्य वर्ग, जो कुल आबादी के 40% और तीसरा है निम्न और गरीब वर्ग जो आबादी के 50% हिस्से को समेटे हुए है।


ब्लूम की रिपोर्ट बताती है कि 1990 से 2020 के बीच देश की कुल आय में इन वर्गों की हिस्सेदारी में व्यापक बदलाव देखने को मिला है, जिसे सभी को जानना बेहद आवश्यक है।


1990 में भारत में आर्थिक रूप से टॉप 10% आबादी के पास देश के 34.10% धन में हिस्सेदारी थी, जबकि 40% आबादी वाला मध्य वर्ग भी 43.7% धन पर काबिज हो चुका था और बॉटम 50% आबादी के पास 22.2% धन-संपदा थी।

लेकिन 2020 तक आते-आते देश में एक बड़ा उलटफेर हो चुका था। टॉप 10% की हिस्सेदारी अब  34.10% से बढ़कर 57.10% हो चुकी थी, जबकि मिडिल क्लास 43.7% हिस्सेदारी से घटकर मात्र 27.3% तक सीमित हो चुका था। वहीं हाशिये पर खड़ी आधी आबादी की हिस्सेदारी जो 1990 तक 22.2% थी, अब घटकर 15% रह गई थी। 


ब्लूम की इस रिपोर्ट को चूँकि पश्चिमी देशों के वेंचर कैपिटल, स्टार्टअप में निवेश करने के लिए मूल्यांकन करेंगे, इसलिए उनके लिए भारत की यह तस्वीर सटीक फैसले लेने के लिए उपयुक्त हो सकती है, लेकिन आम भारतीय के लिए तो यह उसके अस्तित्व से जुड़ा है। विडंबना यह है कि भारतीय मीडिया और सरकार या विपक्ष तक इस सच को मजबूती के साथ नहीं बता रहा। 


लेकिन 2020 के बाद तो हालात कहीं ज्यादा गंभीर हो चुके हैं। ऐसा नहीं होता तो ब्लूम की रिपोर्ट जो 2022 तक भारत की सक्सेस स्टोरी की गाथा गा रही थी, उसे यह तस्वीर दिखाने की जरूरत नहीं पड़ती। 2020 से 22 तक कोविड महामारी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था भी K shape रिकवरी से गुजरी है। फर्क ये है कि भारत ने इस K शेप विकास को अपने से अलग होने नहीं दिया है, जिसका नतीजा बड़े कॉर्पोरेट समूहों के धन में बेतहाशा बढ़ोत्तरी और दूसरी तरफ मुद्रास्फीति और तीव्र बेरोजगारी में नजर आती है।


रिपोर्ट इस ओर भी ध्यान दिलाती है कि कोविड महामारी के दौरान सरकार ने पूंजीगत व्यय में भारी बढ़ोत्तरी की। इसकी बड़ी वजह खुद पीएम नरेंद्र मोदी के द्वारा अचानक से देशव्यापी लॉकडाउन रही, जिसमें लगभग समूचा देश ठप पड़ गया था और करोड़ों श्रमिकों को शहरों से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। रिपोर्ट में ग्राफ के जरिये दर्शाया गया है कि भारत की जीडीपी, विकसित और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में ज्यादा नीचे गई। सरकार ने पूंजीगत व्यय में बढ़ोत्तरी की, आरबीआई ने रेपो रेट घटाकर पूंजी की उपलब्धता को सुगम बनाया। इसका नतीजा यह हुआ कि उद्योगों ने जो ऋण लेना था, उसकी जगह पर्सनल लोन का चलन देश में तेजी से बढ़ा, और उधार का घी पीकर देश तेज जीडीपी के आंकड़े दिखाकर दुनिया में धाक जमाने लगा। 


लिहाजा 2022 में घरेलू खपत में तेज उछाल देखने को मिला, और मोदी सरकार भी -5.8% से वित्त वर्ष 2022 में 9.7% जीडीपी की ग्रोथ रेट दिखाने में सफल रही। इसका भुगतान देश को आने वाले वर्षों में तो करना ही था। आज मोदी सरकार बजट घाटे को काबू में रखने को दृढ है, मतलब पूंजीगत व्यय सरकार नहीं बढ़ाने जा रही। महंगाई, घटते रोजगार और वेतन में मामूली या नेगेटिव ग्रोथ ने उपभोक्ता की जेब काट रखी है, इसलिए उससे भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।


सिर्फ कॉर्पोरेट ही था, जिसके पास एक रिपोर्ट के मुताबिक 14 लाख करोड़ रूपये का कैश रिजर्व पड़ा हुआ है। लेकिन बाजार में मांग की कमी कॉर्पोरेट को नया निवेश करने से लंबे अर्से से रोके हुए है। एक बात और, K shape अर्थव्यवस्था में बड़ी पूंजी का एकाधिकार उसे कम उत्पादन, ज्यादा मुनाफ़े की स्थिति में ला चुका है। अब जो सरकार खुद क्रोनी कैपिटल के भरोसे एक के बाद एक चुनावी वैतरणी को पार करने की आस लगाये बैठी हो, उससे इनके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई के बारे में देश कोई खामख्याली नहीं पाले हुए है।


एक चौथा विकल्प भी है, जो वैश्विक व्यापार में निर्यात बढ़ाकर संभव है। लेकिन बड़े पैमाने पर आयात आधारित अर्थव्यवस्था, रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ अमेरिका की एंटी-ग्लोबलाइजेशन मुहिम ने भी यह दरवाजा पहले ही बंद कर दिया था, जिसे डोनाल्ड ट्रम्प हर दिन नई ऊंचाइयों पर ले जाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे। 


लेकिन रिपोर्ट में भारत के भीतर एक दूसरे भारत की तस्वीर काफी रंगीन देखने को मिलती है। इस छोटे से समूह में अहमदाबाद में होने वाले कोल्डप्ले आयोजन, एसआईपी और शेयर बाजार में तेज ग्रोथ, शहरों और महानगरों में तेजी से बढ़ते गेटेड कम्युनिटी के चलन को रेखांकित किया गया है।


इंडिया के भीतर इंडिया को ढूंढता बाजार बताता है कि भले ही भारत दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है, लेकिन धनाड्य लोगों की संख्या के लिहाज से भारत दुनिया में 10वें पायदान पर है। यदि प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देखेंगे तो 2,500 डॉलर प्रति व्यक्ति के साथ भारत का स्थान 140वें पायदान पर आता है, लेकिन इसके 14 करोड़ धनाड्य लोग, जिनकी आय विश्व बैंक के 14,000 डॉलर वाले उच्च आय के पैमाने को पूरा करती है, उसके लिहाज से यह संख्या दुनिया के 63वें सबसे धनी लोगों का निर्माण करती है। 


श्रमशक्ति के बारे में भी ब्लूम की रिपोर्ट कुछ इस प्रकार से है: आबादी 140 करोड़, 15 वर्ष और उससे अधिक उम्र की आबादी: 96.1 करोड़, जबकि वास्तविक श्रम शक्ति है 57.8 करोड़।


सरकारी रिपोर्ट पर आधारित इस रिपोर्ट में 3.2% बेरोजगार (1.80 करोड़), 58% स्वरोजगार (इसमें 33% वे हैं, जिन्हें उनके काम का कोई पैसा नहीं मिलता। जैसे कृषि कार्यों में कृषक परिवार के बाकी के सदस्य) की संख्या 32.65 करोड़ है। 


11.07 करोड़ (20%) दिहाड़ी मजदूर हैं, जबकि 7.03 करोड़ (13%) लोग ऐसे हैं, जिनके पास नियमित रोजगार तो है, लेकिन वे किसी अनुबंध में शामिल नहीं हैं। वहीं 5.10 करोड़ लोग (9%) ही ऐसे हैं, जिनके पास पक्की नौकरी है, और जिनके पास नियोक्ता के साथ नौकरी का करार है।


भारत के 22% स्थायी नौकरियों की तुलना में रुस में यह अनुबंध 93%, ब्राजील 68%, चीन 54% यहां तक कि बांग्लादेश तक में 42% श्रमशील आबादी के पास उपलब्ध है।


यह रिपोर्ट भले ही आम भारतीयों की नजरों से ओझल रहे, लेकिन विदेशी संस्थागत निवेशकों, विश्व बैंक और वेंचर कैपिटल की नजरों से ओझल नहीं रहने वाली। बड़ा सवाल है, 140 करोड़ देशवासियों को कब देश और अपने बारे में असली हकीकत पता चलेगी?


(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

Post a Comment

0 Comments