*सरकारी कर्मचारी प्रमाण पत्र जमा करने के 5 साल बाद सेवा रिकॉर्ड में जन्मतिथि संशोधित नहीं कर सकते: जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय*
जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सरकारी रिकॉर्ड में सरकारी कर्मचारी की जन्मतिथि में बदलाव के संबंध में स्पष्ट मिसाल कायम की है। न्यायालय ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों की जन्मतिथि, एक बार घोषित होने के बाद उनकी सेवा पुस्तिका या किसी अन्य आधिकारिक दस्तावेज में दर्ज हो जाने के बाद, तब तक नहीं बदली जा सकती जब तक कि उसमें कोई लिपिकीय त्रुटि न हो । फैसले में यह स्पष्ट किया गया है कि इस तरह के बदलावों के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकता होती है और प्रमाण-पत्र जमा करने के समय से पांच साल के भीतर अनुरोध किया जाना चाहिए , और केवल तभी जब गलती वास्तविक और प्रामाणिक हो ।
*मामले की पृष्ठभूमि:*
यह मामला गुलाम नबी सोफी नामक एक सरकारी कर्मचारी का था, जिसने अपनी सेवा में शामिल होने के समय अपनी जन्मतिथि 1953 बताई थी। उसकी जन्मतिथि उसके द्वारा प्रस्तुत मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र के आधार पर आधिकारिक सेवा अभिलेखों में दर्ज की गई थी , जिस पर उसने हस्ताक्षर भी किए थे। हालांकि, दशकों बाद, सोफी ने दावा किया कि उसकी वास्तविक जन्मतिथि 1958 थी और उसने इसे सही करने की मांग की, ताकि उसे सेवा के अतिरिक्त पांच साल का लाभ मिल सके।
अपने दावे के समर्थन में उन्होंने एक मेडिकल सर्टिफिकेट पेश किया , जिसमें उनका जन्म वर्ष 1958 दर्शाया गया था। हालांकि, अदालत ने कहा कि लगभग 40 साल की सेवा के बाद उनकी जन्मतिथि में बदलाव करना समझदारी नहीं थी , खासकर तब जब दावा आधिकारिक रिकॉर्ड के विपरीत था।
*प्रमुख कानूनी प्रावधान:*
1. सिविल सेवा विनियम 1956 : इन विनियमों के अनुसार, जन्म तिथि मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र के आधार पर दर्ज की जानी चाहिए । यह प्रमाण पत्र, जो सोफी ने अपनी पहली नौकरी में शामिल होने पर प्रदान किया था, उसके द्वारा हस्ताक्षरित था, और इसलिए, दर्ज की गई जन्म तिथि को सटीक और बाध्यकारी माना जाता था।
2. *पांच साल का नियम* : उच्च न्यायालय ने कानूनी प्रावधान का हवाला दिया जो प्रमाण पत्र जमा करने से पांच साल से अधिक समय बाद जन्मतिथि में बदलाव करने पर रोक लगाता है । सोफी ने इस समय सीमा के भीतर अधिकारियों से संपर्क नहीं किया, जिससे बदलाव के लिए उनका अनुरोध अमान्य हो गया।
*न्यायालय की टिप्पणियां:*
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि कोई कर्मचारी अपने आधिकारिक दस्तावेजों के बारे में अनभिज्ञता का दावा नहीं कर सकता, जिन पर उसने स्वयं हस्ताक्षर किए हैं। इस मामले में, सोफी के अपने जन्म वर्ष को बदलने के दावे को संदिग्ध माना गया, क्योंकि यह सुझाव दिया गया कि वह पांच साल कम उम्र का दिखना चाहता था , जिससे उसे सेवा के अतिरिक्त वर्ष मिल सकें।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि भले ही सोफी ने वे दस्तावेज प्रस्तुत किए जिन्हें वह वास्तविक मानता था , लेकिन इतने लंबे समय के बाद आधिकारिक रिकॉर्ड में फेरबदल करने से एक मिसाल कायम होगी जो आधिकारिक रिकॉर्ड की अखंडता को कमजोर कर सकती है।
इसके अतिरिक्त, अदालत ने एक महत्वपूर्ण तार्किक मुद्दे की ओर ध्यान दिलाया: सोफी का 1958 में पैदा होने का दावा यह दर्शाता है कि 1970 में जब उसने मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की थी, तब वह केवल 12 वर्ष का था , जो कि अत्यधिक असंभव था, क्योंकि उस समय नियमों के अनुसार परीक्षा देने के लिए न्यूनतम आयु 16 वर्ष होनी आवश्यक थी।
*न्यायालय का अंतिम निर्णय:*
जम्मू -कश्मीर उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिसने सोफी के अनुरोध को खारिज कर दिया था। अदालत ने दोहराया कि एक बार जब किसी सरकारी कर्मचारी की साख स्वीकार कर ली जाती है और आधिकारिक दस्तावेजों में दर्ज हो जाती है, तो दशकों बाद भी उसमें बदलाव नहीं किया जा सकता, चाहे मेडिकल सर्टिफिकेट जैसे नए दस्तावेज ही क्यों न पेश किए जाएं ।
इसके अलावा, उच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम सी. राम स्वामी (1997) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया , जहां यह फैसला सुनाया गया था कि भले ही नए साक्ष्य या रिकॉर्ड प्रकाश में आते हैं, उनका उपयोग लंबे समय से मौजूद आधिकारिक रिकॉर्ड को बदलने के लिए नहीं किया जा सकता है।
*निष्कर्ष* :
यह निर्णय सरकारी अभिलेखों को बनाए रखने में सटीकता और अखंडता के महत्व को पुष्ट करता है, खासकर जब यह कर्मचारियों की जन्मतिथि जैसी महत्वपूर्ण बात हो । न्यायालय ने सख्त समयसीमा और प्रक्रियाओं पर भी प्रकाश डाला जिसके तहत ऐसे अभिलेखों में संशोधन किया जा सकता है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी कर्मचारियों को अपने आधिकारिक अभिलेखों में तब तक बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए जब तक कि कोई वैध और समयबद्ध कारण न हो।
*अपीलकर्ता बनाम प्रतिवादी: गुलाम नबी सोफी बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य*
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